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पत्रकारिता एक रहस्य – कुमार जितेन्द्र: संपादकीय

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विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर विशेष लेख – सारे विभागों का एक अपना-अपना अधिकार होता है, उसके ऊपर बैठे पत्रकारों की एक समूहों का निगरानी होता है, पर निगरानी अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध करने का एक मात्र सिर्फ जरिया होता है। आज हमारे अधिकारों का सरेआम कत्ल हो रहा है, फिर भी हम तमाशबीन होकर रह गए हैं, इसमें गलती किसी और की नहीं हमारी ही है क्योंकि हम पेट से पत्रकारिता सीखकर जो नहीं आए हैं। बेशक पत्रकारिता बुद्धिजीवियों की टोली को कहा जाता है, पर सीखने वाले का नाम जरा बताएगा कोई? या फिर सीखे-सिखाएं लोगों के तलवे चाटने वाले को ही पत्रकार कहा जाता है?

हमारा समाज बचेगा तब तो?

आज हमारे विश्व में सबसे बड़ी समस्या या बोलें संकट आन पड़ी है जिससे भारत अछूता नहीं है नाम है कोरोना वायरस, जिसके वजह से समूचे भारत में महामारी अधिनियम लागू है, जिसके तहत जिले, राज्य ही नहीं वरन समूचे देश भर के पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है यह अधिकार राजनीति से होकर शासन प्रशासन को दिया गया है, जिसका वर्तमान समय में प्रचुर मात्रा में दुरुपयोग भी हो रहा है, क्योंकि सामान्य स्थितियों में इनके हाथ पांव थोड़ा बंधे रहते हैं, पर ऐसी लॉटरी लगने के बाद कहां चुप बैठने वाले हैं ये लोग, बेशक यह समय आलोचना करने का नहीं वरन उत्साहवर्धन करने का है पर उत्साहवर्धन के लिए भी हमारा समाज बचेगा तब तो?

अक्सर हम होते हैं दुर्घटना के शिकार…

यह लेख इसीलिए लिखा जा रहा है क्योंकि उत्साहवर्धन हमारे ही जात के लोगों के द्वारा लिखी जाती है तब जाकर आमजन उसमें विश्वास कर पाते हैं, विश्वासघाती लोग हर क्षेत्र में मौजूद है, जिससे हमारा समाज भी अछूता नहीं है, पर हम हर एक जाति से, हर एक वर्ग से, हर एक धर्म से, हर एक विभाग से मिलते हैं उनकी समस्याओं व छोटी-छोटी जरूरतों को बेबाकी से शासन प्रशासन से अवगत कराते हैं, जिसके इनाम स्वरूप हमें बेरुखीयों का सामना करना पड़ता है या जेल की हवा भी खानी पड़ती है। सबसे पहले हम ही सारे नियमों का पालन करते हैं। तब जाकर लोगों के अंदर जागरूकता लाने का काम करते हैं। हम समाज के ऐसे घृणित वर्ग से आते हैं कि हमारे जीने का अधिकार भी छीना जाता है। फिर भी हम असहनीय पीड़ा को हरकर जीवन को असामान्य से सामान्य बनाकर चलते हैं, आखिर कब तक? इसीलिए अक्सर हम होते हैं दुर्घटना के शिकार।

ना जाने किस मिट्टी से बने हैं पत्रकार…

भारतीय कानून व्यवस्था में पत्रकारों के लिए विशेष छूट, विशेष अधिकार दिए गए पर धरातल तक आते-आते दम तोड़ती हुई नजर आती है। जैसे ही धरातल में बैठे पत्रकारों के तंत्र का पता शासन प्रशासन को लगता है सबसे पहले हम ही मारे जाते हैं। लेकिन हमारी सूचनाओं व हमारी बूते पर करोड़ों की लागत से बने अखबार या न्यूज़ चैनल के पत्रकारों को करोड़ों का पैकेज व विभिन्न सुविधाओं का लाभ मिलता है। जैसे ही AC में बैठे पत्रकारों को पता चलता है की उसका ही पत्रकार किसी मामले में जबरन फंसा दिया गया है तो मुंह फेर लेते हैं। फिर भी हमारी आश टूटती नहीं है और दूसरे को आजमाने निकल जाते हैं, कि पहले से वह बेहतर होगा।

सिर्फ उम्मीद…

ना जाने क्यूं सरकारें आती-जाती रहती है, पर पत्रकारों के नियम व हिफाजत की बात पर मामला जस का तस नजर आता है, विभिन्न पत्रकार संगठनों द्वारा आवाज उठाई जाती है और बड़े आकाओं के AC चेंबर में दफ्न भी हो जाती है। आखिरकार विभिन्न समुदायों की आवाज बन कर हम क्यूं निस्वार्थ अड़े रहते हैं?

आखिरकार क्यूं सबसे सहज, सरल, त्रुटिरहित पत्रकारिता की आस लगाए आम जनमानस बैठी रहती है? इसीलिए मेरी नजरों में पत्रकारिता एक रहस्य मात्र बनकर रह गई है।

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